न्यूज नेत्रा, मीडिया हाउस ऋतिका पयाल राणा, देहरादून
हाल में मूल निवासी स्वाभिमान रैली और सशक्त भू-कानून को लेकर आंदोलनकारी रूपी रैली में पहाड़ का दर्द साफ झलका। इस दर्द में कई सवाल हैं जिनके जवाब उलझते जा रहे हैं और सवाल हैं कि उलझते। पलायन की मार से पहाड़ लगातार खाली होते जा रहे हैं और पलायन रोकने के प्रयास व योजनायें फाइलों में चल रही हैं। यदि योजनायें व प्रयास फाइलों से बाहर निकलते तो पहाड़ से पलायन जरूर थमता लेकिन हाल ऐसे हैं कि पहाड़ वीरान होते जा रहे हैं। ऐसे गांवों की संख्या भी बढ़ती जा रही है जो पूरी तरह आबादी विहीन हो चुके हैं। ऐसे में कई और सवाल भी हर किसी के जहन में तैर रहे हैं कि आने वाले समय में ये भूतिया गांव इतिहास बनकर रह जायेंगे। विधानसभा सीटों का परिसीमन इस ओर इशारा कर रहा है। इन तमाम बिंदुओं को उकेरती न्यूज नेत्रा की संवाद्दाता रितिका पयाल की यह खास Report
Uttarakhand उत्तराखंड को पृथक राज्य बनाने की मांग के पीछे पर्वतीय क्षेत्रों में विकास की बयार और पहाड़ी लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने की मंशा शामिल थी। परंतु राज्य निर्माण के बाद सरकारों ने मैदानी इलाकों को अधिक तवज्जो देते हुए पहाड़ी क्षेत्रों को नजरअंदाज कर दिया। जिसके चलते पहाड़ के कई गांव वीरान हो गए और बाकी बचे गांवों में से अधिसंख्य में बेहद कम परिवार शेष रह गए। पलायन के चलते भूतिया शक्ल अख्तियार कर चुके इन गांवों से किसी को कोई सरोकार नहीं जान पड़ता।
राज्य के पर्वतीय गांवों में शिक्षा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सड़क संपर्क मार्गों की स्थिति दयनीय है, जिसके चलते इन गांवों में निवास करने वाले ग्रामीण बेहतर अवसरों की तलाश में अपने पुश्तैनी घरों को छोड़कर मैदानी इलाकों में आशियाना ढूंढने निकल पड़ते हैं और पीछे छोड़ जाते हैं अपने खंडहर होते मकान एवं बंजर होते खेतों को। बड़े पैमाने पर हो रहे इस पलायन के चलते गांव वीरान हो रहे हैं और खेती बंजर।
उत्तराखंड में 1000 से अधिक ऐसे गांव है जो पूरी तरह से आबादी विहीन हो चुके हैं। वहीं करीब इतने ही गांवों में आबादी 50 फीसदी तक कम हो गई है। इसका प्रतिफल यह हुआ कि पिछले परिसीमन में पर्वतीय क्षेत्रों की विधानसभा सीटें 42 से घटकर 36 रह गईं। मैदानी जिलों में जनसंख्या वृद्धि के चलते विधानसभा सीटों में बढ़ोतरी देखने को मिल। हरिद्वार और उधम सिंह नगर जैसे दो जिलों में ही 70 विधानसभा सीटों में से 20 विधानसभा सीटें हो गई। वैसे, अगर भौगोलिक स्थिति को देखा जाए तो उत्तराखंड में क्षेत्रफल के लिहाज से बड़े-बड़े पर्वतीय जिले हैं। लेकिन इनमें विधानसभा की सीटें बेहद कम हैं। पिथौरागढ़ में केवल चार विधानसभा सीटें हैं तो वहीं रुद्रप्रयाग और चंपावत में दो-दो विधानसभा सीटें हैं।
मैदानी क्षेत्रों में बढ़ रहे जनसंख्या के भारी दबाव कारण यह आशंका भी मुहबाएँ खड़ी हो गई है कि वर्ष 2026 में होने वाले आसन्न परिसीमन में कहीं पर्वतीय क्षेत्रों की विधानसभा सीटें और भी कम ना हो जाएं। ऐसे में यह मैदानी क्षेत्र के राजनीतिक वर्चस्व को स्थापित कर देगा और पहाड़ एक बार फिर उस स्थिति में पहुंच जाएगा। जहां वह संयुक्त उत्तर प्रदेश के दौरान था। तब भी पर्वतीय क्षेत्रों में न तो स्वास्थ्य सुविधा अच्छी थी, न ही बेहतर शिक्षा व्यवस्था थी और न ही रोजगार के साधन उपलब्ध थे। लेकिन आज राज्य निर्माण के दो दशक पश्चात भी उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में हालात कुछ अलहदा नहीं दिखाई पड़ते। ऐसे में न तो पलायन रुक रहा है और न ही लोगों का जीवन स्तर बेहतर हो रहा है। कुमाऊं मंडल के पर्वतीय क्षेत्रों में अगर किसी को स्वास्थ्य संबंधी परेशानी उत्पन्न होती है। तो उसे हल्द्वानी या काशीपुर रेफर कर दिया जाता है। यही स्थिति अगर गढ़वाल के पर्वतीय क्षेत्रों में होती है तो मरीज को ऋषिकेश या देहरादून रेफर कर दिया जाता है।
विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण कई बार तो अस्पताल तक पहुंचने में ही विलंब हो जाता है और मरीज की जान चली जाती है। अगर मरीज किसी तरह स्थानीय अस्पताल पहुंच भी जाता है तो चिकित्सक और स्टाफ की कमी से उसकी जान पर बन आती है। ऐसे में यह हालात कब बदलेंगे, इस बाबत केवल उम्मीद भरी निगाहों से टकटकी लगाकर बस निहारा ही जा सकता है।